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अस्वीकार्य आर्थिक चिंतन

अर्थ विमर्श
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वर्ष 2011-12 के बजट में वित्तमत्री का पूरा ध्यान आर्थिक विकास दर को बढ़ाने की ओर रहा है। उन्होंने आयकर, एक्साइज एव कस्टम ड्यूटी के कानूनों को सरल बनाने की बात कही है। सेल टैक्स की विभिन्न दरों को समाप्त करके वैट की एक दर की ओर वह बढ़ रहे हैं। विचार है कि टैक्स प्रणाली के सरल होने से विकास दर में वृद्धि होगी। सरकार की प्रमुख जिम्मेदारी देश को समृद्ध बनाना है, वितरण स्वय धीरे-धीरे हो जाएगा।


वित्तमत्री के इस चिंतन में अनेक समस्याएं हैं। एक यह कि ऊपरी वर्ग द्वारा पूंजी सघन यंत्र लगाने से निम्न वर्ग के श्रमिकों की मांग कम हो जाती है। काल सेंटर में वैक्यूम क्लीनर का उपयोग होने से सफाई कर्मचारी की जरूरत कम हो जाती है अथवा चाय की ऑटोमैटिक मशीन लगाने से नुक्कड़ के चाय वाले की जरूरत नहीं रह जाती है। दूसरी समस्या है कि च्यवनप्राश और सिगरेट पर टैक्स एक ही दर से लगाने से लाभप्रद और हानिप्रद वस्तुओं के उपभोग में बराबरी स्थापित हो जाती है। तीसरी समस्या यह है कि एडवरटाइजमेंट के माध्यम से लोगों को अनावश्यक एव हानिकारक वस्तुओं का उपभोग करने के लिए प्रेरित किया जा सकता है। झुग्गी के बगल की सड़क पर गुजरती कार को देखकर मन उद्विग्न हो जाता है। अत: यह मान्य नहीं है कि तीव्र आर्थिक विकास से जनसाधारण की स्थिति स्वत: सुधर जाएगी, बल्कि देखा जाता है कि तीव्र आर्थिक विकास के दौर में आम आदमी की स्थिति बिगड़ती है, जिसका प्रमाण 19वीं सदी का इंग्लैंड है। तब श्रमिकों को चाबुक से मार-मार कर 14 घंटे काम लिया जाता था। यह शोषण तब बंद हुआ जब इंग्लैंड ने भारत के किसानों का शोषण कर अपने श्रमिकों को राहत देनी शुरू की। अत: सभी वस्तुओं पर एक ही दर से टैक्स लगाकर आर्थिक विकास को गति देने की वित्तमत्री की सोच अस्वीकार्य है।


दूसरी ओर सरकारी योजनाओं के माध्यम से भी गरीबों को राहत पहुंचाने की प्रक्रिया असफल है। सोवियत संघ तथा इंदिरा गांधी के गरीबी हटाओ जैसे कार्यक्रमों का अंतिम नतीजा कम्युनिस्ट पार्टी तथा सरकारी कर्मचारियों की समृद्धि रहा है। हमें ऐसा रास्ता निकालना होगा कि बाजार की ऊर्जा को प्रस्फुटित होने का अवसर भी मिले और गरीब को राहत भी मिले। मूल रूप से बाजार को स्वीकार करते हुए उसमें गरीब के पक्ष में सीमित मात्रा में दखल करना चाहिए, जैसे कार को रेड लाइट पर पैदल यात्रियों के लिए रोक दिया जाता है।


वित्तमंत्री सभी वस्तुओं को ‘अच्छी’ और ‘बुरी’ श्रेणियों में वर्गीकृत कर सकते हैं, जैसे च्यवनप्राश अच्छा माल हुआ और सिगरेट बुरा माल हुआ। हैंडलूम अच्छा माल हुआ और पावरलूम बुरा माल हुआ, चूंकि इससे हथकरघे के रोजगार का भक्षण होता है। साइकिल एव रिक्शा अच्छा माल हुआ, क्योंकि ये श्रम सघन हैं और पर्यावरण के लिए भी लाभदायक हैं, जबकि बड़ी कार बुरा माल हुआ, क्योंकि इसे चलाने के लिए हाईवे बनाने में कृषि भूमि समाप्त होती है, जिससे हमारी खाद्य सुरक्षा प्रभावित होती है। साथ ही हम आयातित तेल पर निर्भर हो जाते हैं। इससे हमारी आर्थिक सप्रभुता खतरे में पड़ती है। बायोडीजल अच्छा माल हुआ और पेट्रोलियम डीजल बुरा माल हुआ। रसवती अच्छा माल हुआ, क्योंकि ताजा जूस स्वास्थवर्धक होता है तथा इस उद्योग में रोजगार अधिक बनते हैं, जबकि सॉफ्ट ड्रिंक बुरा माल हुआ। वित्तमत्री को चाहिए कि अच्छे माल पर टैक्स की दर न्यून रखें एव बुरे माल पर अधिक। ऐसा करने से ससाधनों का उपयोग अच्छे माल के उत्पादन में अधिक होगा। निश्चित रूप से हमारी आर्थिक विकास दर में कुछ गिरावट आएगी, परंतु इस गिरावट को स्वीकार करना चाहिए। जिस प्रकार मदिर जाते समय जैन मुनि धीरे-धीरे पैर रखते हैं कि चींटी पैरों के नीचे न आ जाए और उनसे हिंसा न हो जाए। टैक्स प्रणाली को सुंदर समाज स्थापित करने का औजार बनाना चाहिए, क्योंकि तीव्र आर्थिक विकास का अंतिम उद्देश्य सुंदर समाज ही है। च्यवनप्राश पर टैक्स दर कम करके सीधे एव स्पष्ट तरीके से सुंदर समाज बनाया जा सकता है। सिगरेट को बढ़ावा देकर पहले तीव्र आर्थिक विकास करना और फिर उस लाभ से च्यवनप्राश खरीदने के घुमावदार रास्ते को अपनाने की क्या जरूरत है?


टैक्स प्रणाली का रोजगार पर भी प्रभाव पड़ता है। एकीकृत टैक्स दर में हथकरघे एव पावरलूम अथवा हैंडमेड कागज तथा ऑटोमैटिक मशीन से बने कागज पर एक ही दर से टैक्स वसूल किया जाता है। टेलीफोन केबल डालने के लिए एक्सॉवेटर अथवा श्रमिक के उपयोग करने से कंपनी द्वारा देय टैक्स पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। श्रम तथा पूंजी को एक ही दृष्टि से देखा जाता है। इस व्यवस्था के स्थान पर सरकार को श्रम-सघन उद्योगों, तकनीकों एव कंपनियों को टैक्स में छूट देनी चाहिए। ज्ञातव्य है कि इस वर्ष अर्थशास्त्र के नोबेल पुरस्कार विजेता प्रोफेसर फिलिप्स ने रोजगार पर सब्सिडी देने का सुझाव दिया है। वित्तमत्री व्यवस्था कर सकते हैं कि जिस माल के उत्पादन में श्रम का हिस्सा अधिक है उस पर टैक्स की दर कम लगाई जाएगी। ऐसा करने से उस टेलीफोन कंपनी को टैक्स कम देना होगा जो केबल बिछाने का कार्य श्रमिकों द्वारा कराएगी और उस कंपनी को अधिक देना होगा जो केबल को एस्कॉवेटर से बिछाएगी।


सरकारी कल्याणकारी योजनाओं पर भी आर्थिक सुधार लागू करना चाहिए। पिछले साठ वषरें के गरीबी हटाओ कार्यक्रमों का लाभ सरकारी कर्मचारियों को अधिक हुआ है। सरकारी अध्यापकों ने पक्के मकान बना लिए हैं, परंतु सरकारी विद्यालयों में छात्र अधिकाधिक सख्या में फेल हो रहे हैं और पूर्ववत झोपड़ी में रह रहे हैं। बिहार में नीतीश कुमार सरकार द्वारा अंत्योदय योजना को कूपन के माध्यम से चलाने का निर्णय लिया गया है। इस फार्मूले को सर्वत्र लागू करना चाहिए-विशेषकर शिक्षा के क्षेत्र में। सभी युवाओं को शिक्षा का कूपन दे देना चाहिए, जिसका उपयोग वे अपनी जरूरत के अनुसार किसी भी सरकारी अथवा निजी विद्यालय में फीस अदा करने के लिए कर सकते हैं। ऐसा करने पर सरकारी विद्यालयों के लिए छात्रों को आकर्षित करना जरूरी हो जाएगा और उनके द्वारा दी जा रही शिक्षा की गुणवत्ता सहज ही सुधर जाएगी। मुफ्त शिक्षा जैसी अनेक सरकारी योजनाएं कल्याणकारी माफिया का रूप धारण कर चुकी हैं। इन्हें पोषित करना बंद कर देना चाहिए। वित्तमत्री को आर्थिक विकास की राह पर जनहितकारी रेड लाइट लगानी चाहिए। सुनिश्चित करना चाहिए कि विकास की आपाधापी में आम आदमी की बलि न चढ़ जाए।


[डॉ. भरत झुनझुनवाला: लेखक आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ हैं]

Source: Jagran Nazariya

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