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खाद्य सुरक्षा की कुंजी

अर्थ विमर्श
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वाल-मार्ट और टेस्को जैसी विशाल सुपरमार्केट रिटेल चेन के भारत में काम शुरू करने पर छिड़ी बहस के बीच उत्तर प्रदेश सरकार ने मंडियों के मौजूदा तंत्र के विस्तार की रूपरेखा तैयार कर ली है। उत्तर प्रदेश में अगले चार साल में 2105 मंडियों का गठन हो जाएगा। अकेला यह कदम ही आपूर्ति की बाधाओं को दूर कर देगा जिससे किसानों को एक सुनिश्चित बाजार मिल जाएगा। मंडियों के व्यापक तंत्र और वह भी किसानों की पहुंच के भीतर होने के कारण ही आज पंजाब देश का खाद्य कटोरा बन गया है। प्रसिद्ध कृषि प्रशासक डॉ. एमएस रंधावा का एक प्रसंग मुझे याद आ रहा है। पंजाब में हरित क्रांति के बीज पड़ने के तुरंत बाद तत्कालीन मुख्यमंत्री लक्ष्मण सिंह गिल ने रंधावा से पूछा कि वह ऐसा क्या काम करे कि उनका नाम इतिहास में अमर हो जाए। रंधावा ने उन्हे सलाह दी कि मंडियों तक पक्के संपर्क मार्गो का निर्माण करा दें, ताकि किसान आसानी से वहां तक पहुंच सकें। लक्ष्मण सिंह ने खरीद केंद्रों से मंडियों तक सड़कों का जाल बिछा दिया। शेष इतिहास है।


मैं यह देखकर बहुत खुश हूं कि मायावती सरकार कृषि में इसी प्रकार का विपणन निवेश कर रही है। मंडियों का प्रस्तावित ढांचा किसानों को मजबूरी में सस्ती दरों पर व्यापारियों को फसल बेचने से बचाएगा। मंडियों के ढांचे के अभाव में फसल का कोई ऐसा सीजन नहीं होता जब किसानों का बिचौलियों के माध्यम से शोषण न होता हो। यह देखना असामान्य नहीं है कि अपनी फसल को बेचने के लिए किसान पड़ोसी राज्यों तक पहुंचते है। उदाहरण के लिए, हर साल पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बहुत से किसान गेहूं बेचने के लिए पड़ोसी हरियाणा का रुख करते है।


उत्तर प्रदेश देश का सबसे अधिक आबादी वाला राज्य है और यही खाद्यान्न का सबसे बड़ा उत्पादक भी है। किंतु पश्चिम के कुछ क्षेत्रों को छोड़कर यहां कृषि विपणन की सुविधाएं बेहद कम है। इसीलिए यहां कृषि एक अभिशाप बन गई है। सुनिश्चित बाजार के अभाव में उत्पादन में सुधार के सही निवेश के लिए किसानों को कोई बढ़ावा नहीं मिलता है। न ही वे फसल का उचित दाम हासिल करते है। पंजाब और हरियाणा के विपरीत, जहां सरकारी खरीद केंद्र और मंडियों का मजबूत जाल है, उत्तर प्रदेश इस क्षेत्र में काफी पिछड़ा हुआ है। उत्तर प्रदेश में केवल 300 सरकारी खरीद केंद्र है।


प्रस्ताव के अनुसार प्रदेश में हर साल पांच सौ मंडियों की स्थापना होगी। मंडियों के इस विशाल ढांचे से किसानों की निकटतम मंडी तक पहुंचने की औसत दूरी भी घटकर सात किलोमीटर रह जाएगी। इन मंडियों का संचालन निजी क्षेत्र के हाथों में सौंपने की बजाय, जैसा कि योजना आयोग सलाह दे रहा है, मुख्यमंत्री मायावती ने इनका नियंत्रण राज्य कृषि उत्पादन विपणन बोर्ड को सौंपकर बिल्कुल सही कदम उठाया है। इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि पिछले कुछ सालों के दौरान कमीशन एजेंटों ने पूरी तरह से मंडियों पर नियंत्रण कर लिया है। यह समस्या इसलिए पैदा हुई क्योंकि राजनीतिक दलों ने मंडियों का नियंत्रण आढ़तियों के हाथों में सौंप दिया। पेशेवरों द्वारा संचालित होने के बजाए देश की अधिकांश मंडियों में प्रबंधन कमीशन एजेंटों के हाथ में है। किंतु इसका इलाज मंडियों को खत्म कर देने या इनका नियंत्रण निजी कंपनियों के हाथों में सौंपना नहीं है। राजनीतिक दखल से परे एक बेहतर नियामक मंडियों को पुनर्जीवित तथा अधिक प्रभावी कर सकता है। न ही इसका जवाब बड़े खाद्यान्न सुपरमार्केट को भारत में दुकानें खोलने की अनुमति प्रदान करने में है।


वाणिज्य मंत्रालय और योजना आयोग वाल-मार्ट और टेस्को जैसी रिटेल चेन को भारत में प्रवेश दिलाने की जबरदस्त पैरवी कर रहे है। इनकी दलील है कि इससे किसानों को बेहतर कीमत और ग्राहकों को सस्ती दरों पर खाद्यान्न मिल सकेगा। बड़ी रिटेल चेन से यह भी अपेक्षा जताई जा रही है कि वे मध्यस्थों का खात्मा कर देंगी, जिसका लाभ किसानों को होगा। मुझे लगता है कि कृषि क्षेत्र में सुधारों के नाम पर अब निजी खिलाड़ियों को प्रवेश देने का अधिक दबाव पड़ेगा। अंतरराष्ट्रीय खाद्य नीति अनुसंधान संस्थान का कहना है, ‘भारत में किसानों को मंडियों में लूटा जा रहा है, और उपभोक्ता बाजार से भारी दामों में खाद्यान्न खरीद रहे है।’


यह दलील बेतुकी है। अनुभव बताता है कि बड़ी खाद्य रिटेल चेन से न तो किसानों का भला हुआ है और न ही उपभोक्ताओं का। न ही इस चेन से रोजगार के अवसर बढ़े है। बड़े सुपरमार्केटों का यह दावा कि वे बड़ी संख्या में नौकरियां देकर आर्थिक संवृद्धि को गति देंगे, थोथा साबित हुआ है। इंग्लैंड में, टेस्को और सेंसबरी जैसी दिग्गज रिटेल चेन हजारों नौकरियां पैदा करने के अपने दावों पर खरी नहीं उतरीं। पिछले दो सालों के दौरान, टेस्को ने एक हजार और सेंसबरी ने 13 हजार नौकरियां देने का वायदा किया था, जबकि हकीकत में टेस्को ने कुल 726 लोगों को रोजगार दिया है, जबकि सेंसबरी ने 1600 लोगों को नौकरी से निकाल दिया है।


मैं हमेशा से कहता आ रहा हूं कि अगर सुपरमार्केट वास्तव में किसानों के इतने ही हितसाधक है तो अमेरिका किसानों को विशाल अनुदान क्यों दे रहा है। आखिरकार, विश्व की सबसे बड़ी रिटेल चेन वाल-मार्ट का जन्म अमेरिका में ही हुआ है और इसे अमेरिका के किसानों को आर्थिक रूप से इतना समर्थ बना देना चाहिए था कि उन्हे सब्सिडी की जरूरत ही न पड़ती। किंतु ऐसा नहीं हुआ। अमेरिका के किसान सरकारी सब्सिडी की बैसाखी पर खड़े है। 1995 से 2009 के बीच 12.50 लाख करोड़ रुपये की सब्सिडी अमेरिकी किसानों को दी गई है। इसमें प्रत्यक्ष आय सहयोग भी शामिल है।

जरूरत भारत में मंडियों का राष्ट्रव्यापी ढांचा खड़ा करने की है। यह जानना जरूरी है कि अगर पंजाब में मंडियों का विकसित तंत्र खड़ा न होता, तो यह देश का खाद्यान्न कटोरा न होता। मंडियों में सुनिश्चित सरकारी खरीद के बल पर ही किसानों को अपनी पैदावार का अधिक दाम मिलता है। पंजाब में भारी संख्या में मंडियों की मौजूदगी के कारण ही वहां फसल के समय कम दामों में उपज बेचने की घटनाएं देखने में नहीं आतीं। उत्तर प्रदेश में ऐसा कोई साल नहीं है जब फसल के समय निजी व्यापारी किसानों से कम दाम में उपज खरीद कर उन्हे लूट न लेते हों।


उत्तर प्रदेश में मंडियों की कम संख्या के कारण यहां के किसानों को भारी नुकसान उठाना पड़ा है। नेशनल सैंपल सर्वे ऑर्गेनाइजेशन के अनुसार, एक औसत किसान परिवार की मासिक आय उत्तर प्रदेश में सबसे कम है।


[देविंदर शर्मा: लेखक कृषि मामलों के विशेषज्ञ है]

साभार: जागरण नज़रिया

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