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आखिरकार सुप्रीम कोर्ट ने नोवार्टिस की कैंसर-रोधी दवा ग्लीवेक का पेटेंट न किए जाने के विरुद्ध अपील रद्द कर दी. नोवार्टिस ने यह अपील 2009 में दिए बौद्धिक संपदा अपीलीय बोर्ड (आईपीईबी) के उस फैसले के विरुद्ध की थी जिसमें उसने ‘बीटा क्रिस्टलाइन’ को ‘इमैटिनिब मेसीलेट’ का नया रूप माना लेकिन पेटेंट ऐक्ट 1970 के संशोधित रूप पेटेंट एक्ट 2005 की धारा 3 के तहत यह कहकर मानने से इनकार कर दिया कि यह एक ही सब्सटैंस के दो रूप हैं और कैंसर रोगियों के इलाज में इससे कोई खास फर्क नहीं पड़ता.
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क्या है बीटा क्रिस्टलाइन और सुप्रीम कोर्ट का फैसला?
नोवार्टिस स्विट्जरलैंड की एक फार्मासिटिकल कंपनी है. 1997 में इसने कैंसर रोधी दवा ग्लीवेक के अंतर्गत सब्सटैंस बीटा क्रिस्टलाइन के पेटेंट के लिये चेन्नई (मद्रास) पेटेंट कंट्रोलर ऑफिस में अपील दायर की. नोवार्टिस की यह अपील 2005 तक विचाराधीन रही और 2005 में पेटेंट (अमेंड्मेंड) एक्ट 2005 के द्वारा शोधित पेटेंट एक्ट 1970 की धारा 3(द) के तहत खारिज कर दिया गया. इसे न्यायसंगत न मानते हुए नोवार्टिस ने पुनः सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर की जिसे पिछ्ले 1 अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट ने भी खारिज कर दिया.
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फैसले का अधार
सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले के कारणों की भी व्याख्या दी है. इसका कहना है कि जिस बीटा क्रिस्टलाइन को नया होने और कैंसर के इलाज में इसके ज्यादा प्रभावी होने का दावा कंपनी कर रही है वह दरअसल अपने प्रभाव में इसके पूर्व स्वरूप ‘इमैटिनिब मेसीलेट’ से ज्यादा असरदार नहीं है और लगभग उसी के समान है. हमारे संविधान में पेटेंट एक्ट 1970 की धारा 3(द) के तहत यह साफ कहा गया है कि अगर किसी सब्सटैंस का नया रूप उसके प्रभावों में ज्यादा असरदार नहीं है तो उसे पेटेंट के लिये अयोग्य माना जायेगा.
सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि नोवर्टिस की अपील को खारिज करने के लिये पेटेंट के भारतीय इतिहास को भी पूरी तरह खंगाला गया जिसके फलस्वरूप यह तथ्य सामने आया कि 1972 से पहले पेटेंट प्रोटेक्शन एक्ट आने के बाद उपभोक्ताओं को केवल नुकसान ही हुआ और इसका फायदा केवल फर्मासिटिकल कंपनियों ने लिया. इसका मुख्य कारण इस एक्ट की खामियां थीं जो 2005 में शोधित हुआ. पेटेंट प्रोटेक्शन एक्ट लाने का मुख्य कारण था फार्मासिटिकल कंपनियों को अपने उत्पादों में शोध के लिये प्रेरित करना, ताकि अधिक से अधिक शोध के द्वारा उपभोक्ताओं के लिये अधिक प्रभावी उत्पाद लाए जा सकें. पर इस पेटेंट एक्ट का आधार लेकर ये कंपनियां अपने एक उत्पाद के संशोधित रूप का पेटेंट कराकर बाजार में उसकी मूल्य वृद्धि कर देती हैं और इस प्रकार यह आम आदमी की पहुंच से बाहर हो जाता है. नोवार्टिस का बीटा क्रिस्टलाइन भी इमैटिनिब मेसीलेट का केवल एक संशोधित रूप है और कैंसर-रोधी प्रभावों में कोई खास वृद्धि नहीं करती. पेटेंट के बाद ये अगले 20 सालों के लिये नोवार्टिस की धरोहर होगी और इस तरह जो उत्पाद दस हजार में उप्लब्ध हो सकता है वह एक लाख का हो जाएगा.
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नोवार्टिस का पक्ष
नोवार्टिस की दलील है कि यह फैसला फार्मासिटिकल कंपनियों को उत्पादों में शोध के लिये हतोत्साहित करेगा लेकिन वास्तव में यह कंपनियों को अपना मुनाफा बढ़ाने के लिये शोध हेतु प्रेरित करेगा. अभी तक कंपनियों का काम सिर्फ नये उत्पादों की खोज कर उसका पेटेंट लेकर उसे ऊंचे दामों पर बेचना होता था वह इस फैसले के प्रभावस्वरूप नये उत्पाद की खोज द्वारा उसके ज्यादा प्रभावकारी लाभों को ढूंढ़ने में भी शामिल हो जाएंगी. अतः सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला कंपनियों के विरुद्ध न होकर दोनों पक्षों के हितों को समान अधार पर लाना है.
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अंतरराष्ट्रीय महत्व एवं भविष्य
अमेरिका, फ्रांस, जर्मनी, स्विट्जरलैंड आदि अधिकांश विकसित देशों ने पेटेंट प्रोटेक्शन कानून लागू किया है और बजाय इसके नये लाभकारी प्रभावों के यह केवल नये संशोधित रूप पर ही पेटेंट कराने का हक देते हैं. पर केवल इस आधार पर भारत में भी इसे लागू नहीं किया जा सकता. यह देश भी यह कानून तब लाए जब ये पूरी तरह विकसित थे. भारत जैसे विकासशील देश में इसे लागू नहीं किया जा सकता. यह फैसला एक प्रकार से इन देशों के लिये एक उदाहरण होगा और उन्हें इस परिदृश्य में दुबारा सोचने के लिये प्रेरित करेगा. हालांकि फार्मासिटिकल बाजार में भारत की केवल 1.3 प्रतिशत की हिस्सेदारी के साथ अंतरराष्ट्रीय पेटेंट के स्वभाव को बदलने में यह तुरंत सक्षम नहीं हो सकेगा. वस्तुतः निकट भविष्य में ऐसा हो सकता है. यह विश्व स्तर पर फॉर्मासिटिकल कंपनियों और आम आदमी दोनों के लिये समान रूप से लाभकारी होगा जिसकी सूत्रधार भारत और इसकी सर्वोच्च न्यायपालिका मानी जायेगी.
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