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13 मई, 2013 को जारी किए गये आंकड़े के अनुसार पिछले माह (अप्रैल) थोक मूल्य सूचकांक (डब्ल्यूपीआई) मार्च माह के 5.5% तथा 5.96% के मुकाबले 4.89 मापा गया. भारतीय बाजार को एक सुखद एहसास देते हुए नवंबर 2009 के बाद पहली बार ऐसा मौका आया जब थोक मूल्य आधारित मुद्रास्फीति 5 प्रतिशत से नीचे गयी. डब्ल्यूपीआई (WPI) में यह गिरावट भोजन, विनिर्मित उत्पादों और ईंधन के दामों में कमी आने के कारण मानी जा रही है. आप सोचेंगे यह मुद्रास्फीति है क्या और इसका बाजार में वस्तुओं की कीमतों में वृद्धि और कमी से क्या संबंध है? आप सोचेंगे कि शायद यह व्यापारिक टर्म हो और आपका इससे कोई लेना-देना नहीं. पर आपको जानकर हैरानी होगी कि मुद्रास्फीति आपको भी प्रभावित करती है और मासिक या वार्षिक नहीं, यह आपकी दैनिक जरूरतों को भी प्रभावित करती है. मुद्रास्फीति का घटना या बढ़ना आपकी खरीद और बिक्री की क्षमता को घटा या बढ़ा सकता है. यह आपको जरूरी चीजों में कटौती करने के लिये भी बाध्य कर सकता है और एक गैर-जरूरी चीज में पैसा बर्बाद करने के लिए भी प्रेरित कर सकता है.
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मुद्रास्फीति या इनफ्लेशन (inflation) है क्या और दैनिक व्यवहार में किस प्रकार प्रभावित करता है?
मुद्रास्फीति या इनफ्लेशन मुद्रा अर्थात पैसे की वह अवस्था है जब बाजार में वस्तुओं की अपेक्षा इसका महत्व कम हो जाता है. अर्थात जितने रुपयों में जितनी वस्तुएं आप अब तक खरीदते थे मुद्रास्फीति में कमी या बढ़त आने के बाद आप उसी वस्तु को खरीदने के लिए उससे कम या ज्यादा रुपये अदा करते हैं.
दैनिक जीवन में भी आप मुद्रास्फीति दर से प्रभावित होते हैं पर ज्यादातर लोग इसे समझ नहीं पाते. पिछले कुछ सालों में अक्सर प्याज के दामों में तेजी और कमी से तो आप परिचित हैं. यह भी मुद्रास्फीति में उछाल और गिरावट का ही नतीजा है. सब्जियों के दाम आसमान छू रहे हैं. चावल, गेहूं, दलहन से लेकर रसोई गैस, पेट्रोल, डीजल, कपड़े सभी पिछले पांच सालों में महंगे हो गए हैं. बाकी चीजें तो फिर भी ठीक हैं पर प्याज-आलू जैसी सब्जियां, अनाज आदि तो अमीर-गरीब हर आदमी की कुछ मूलभूत जरूरतें हैं. लगातार बढ़ते दामों से आप इनमें कटौती करने को मजबूर हो जाते हैं पर अगर इनके दाम घटते हैं तो आप यही चीज ज्यादा मात्रा में खरीद कर ज्यादा उपयोग करते हैं. दूसरे रूप में यह इस तरह भी आपको प्रभावित करता है कि अगर आप इन महंगी चीजों के उपयोग में कमी नहीं कर सकते तो इनमें पहले के मुकाबले ज्यादा पैसे खर्च हो जाने के कारण आप बाकी की जरूरी या गैर-जरूरी चीजों में कमी करते हैं. अगर आपके मासिक वेतन में से अब तक अगर आप 2000 रु. पूरे महीने में सब्जी पर खर्च करते थे और अब उतनी ही जरूरत के लिए आपको 4000-5000 रु. खर्च करने पड़ते हैं और आपका वेतन अब तक वही है तो जाहिर है कि आप अगर अगले दो महीने में 10000 बचाकर एक नया मोबाइल लेने की सोच रहे हैं तो नहीं ले पाएंगे क्योंकि आपकी बचत का पैसा तो सब्जियों की खरीद में ही चला जाएगा. यह वह स्थिति होती है कि जब पैसे होते हुए भी आप इसका ज्यादा उपयोग नहीं कर सकते.अत:वस्तुओं की मांग कम हो जाती है और इसके मुकाबले आपूर्ति अधिक होने से धीरे-धीरे इसकी कीमत में भी कमी आ जाती है जिसे महंगाई का घटना कहते हैं. इसके विपरीत मुद्रास्फीति घटने पर वस्तुओं (Commodities) की कीमतों में कमी आ जाती है. ऐसी स्थिति में कम पैसों में आप ज्यादा चीजें खरीद सकते हैं ( 2009 में मुद्रास्फीति दर में रिकॉर्ड गिरावट दर्ज की गई थी). इस तरह आप घरेलू खर्चों के बाद ज्यादा बचत कर पाने में सक्षम होते हैं और ज्यादा चीजें खरीद सकते हैं. ऐसे में बाजार में वस्तुओं की मांग बढ़ जाती है और इसके अनुपात में आपूर्ति कम होने के कारण मंहगाई बढ़ जाती है. यह सब मुद्रास्फीति बढ़ने या घटने के कारण ही होता है.
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क्या है थोक मूल्य सूचकांक (wholesale price index) और कैसे मापी जाती है मुद्रास्फीति की दर?
देश की महंगाई दर थोक मूल्य सूचकांक (डब्ल्यूपीआई) के आधार पर आंकी जाती है. इसके अंतर्गत कुछ विशेष वस्तुओं का औसत मूल्य निकाला जाता है और पहले के औसत मूल्य से तुलना कर महंगाई दर में कमी या तेजी का पता लगाया जाता है. निर्मित उत्पादों, ईंधन और प्राथमिक वस्तुओं की कीमतों के औसत निकाले जाते हैं. कई लोगों की दलील है कि डब्ल्यूपीआई सटीक रूप से मुद्रास्फीति के दबाव का अंदाजा नहीं देता. इसलिए कई देशों में अब कंज्यूमर प्राइस इंडेक्स (Consumer Price Index या CPI) के द्वारा मंहगाई दर आंका जाता है. सीपीआई (CPI) उपभोक्ताओं की ओर से खरीदे जाने वाले उत्पादों और सेवाओं के खास सेट की वेटेड औसत कीमत को आंकने से जुड़ा सांख्यिकीय माप है.
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मुद्रा स्फीति के वृहत प्रभाव
उत्पादन में अनिश्चितता के परिणामस्वरूप उत्पाद की मांग अनिश्चित हो जाती है व संसाधनों का वितरण असमान हो जाता है. पूंजी संसाधन दीर्घकालीन रूप में नहीं वरन् लघु कालीन प्रयोग में आने लगते हैं तथा उत्पादकों का झुकाव ज़रूरी से गैर जरूरी उत्पाद की ओर हो जाता है क्योंकि गैर ज़रूरी उत्पाद की कीमत बढ़ जाने पर उनमें निवेश लाभप्रद हो जाता है.
मुद्रा स्फीति से अर्थव्यवस्था के कई क्षेत्रों में मंदी आ जाती है जैसे कपड़ा उत्पाद मूल्य बढ़ जाने पर इन उत्पादों की मांग में गिरावट आ जाती है, लोग केवल बेहद ज़रूरी माल ही खरीदते हैं. इससे उद्योग ठप्प पड़ जाते हैं.
देश में आय वितरण गड़बड़ हो जाता है. मुनाफाखोरों को लाभ होने लगता है और नौकरीपेशा संकट में पड़ जाते हैं. भ्रष्टाचार (Corruption), कालाबाजारी और सट्टेबाजी बढ़ती है. कठोर श्रम की इच्छा शक्ति में भी कमी आ जाती है.
(अगले अंक में: महंगाई कम करने के संस्थागत और गैर-संस्थागत तरीके क्या हैं और किस प्रकार काम करते हैं)
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